स्वामी विवेकानंद | नरेन कैसे बने साधु! | स्वामी विवेकानंद जीवन परिचय | Swami Vivekananda Quotes | स्वामी विवेकानंद भाषण

स्वामी विवेकानंद जीवन परिचय

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1 स्वामी विवेकानंद जीवन परिचय
स्वामी विवेकानंद KSY Pathshala

‘मेरा महिमामय भारतवर्ष, हाय पराधीन, पददलित भारतभूमि।

स्वामी विवेकानंद जीवन परिचय:

दिनांक ३१ मई, १८६३ को जब ‘पेनिन्सुलर’ नामक जलयान ने शिकागो धर्म महासभा में हिन्दूधर्म के विशिष्ट प्रतिनिधि को लेकर प्रस्थान किया, तब स्वामी विवेकानंद का हृदय मातृभूमि को छोड़ते हुए व्यथित हो रहा था। 
पश्चिमी देशों में साढ़े तीन वर्षो तक निरन्तर भ्रमण, व्याख्यान, सम्पर्क, प्रशिक्षण आदि में व्यस्त रहने के पश्चात्, जब स्वामीजी का पुनः भारत लौटने का कार्यक्रम बना, तब एक अंगरेज मित्र ने पूछा, स्वामीजी- चार वर्षों तक विलास की लीलाभूमि, गौरवशाली महाशक्तिमान् पश्चिमी भूमि पर भ्रमण कर चुकने के पश्चात आपकी मातृभूमि अब आपको कैसी लगेगी?
उत्तरस्वरूप स्वामीजी के उद्गार थे, पश्चिम में आने से पहले भारत को मैं प्यार ही करता था, अब तो भारत की धूलि भी मेरे लिए पवित्र है, भारत की हवा अब मेरे ले लिए पावन है, भारत अब मेरे लिए तीर्थ है।’
कहीं भी जाते, कुछ भी करते समय स्वामीजी के मन मस्तिष्क में अपनी मातृभूमि, उसकी पददलित सन्तानों की दीनता सदैव विद्यमान रहती थी। उन्होंने एक पत्र में लिखा- ‘आगामी पचास वर्षों के लिए हमें सभी देवताओं को मन से निकाल देना होगा। हमारा एकमात्र जाग्रत देवता हमारा भारत है। इस विराट की पूजा ही हमारी मुख्य पूजा होगी। सबसे पहले जिस देवता की पूजा करेंगे, वह है हमारे देशव्यापी।’
धर्मप्राण, बुद्धिमान, कार्यकुशल, उदारमना, माता भुवनेश्वरी के व्रत उपवास, अनुष्ठान एवं प्रार्थना से प्रसन्न होकर आशुतोष भगवान् के प्रसाद से पौष संक्रांति अर्थात १२ जनवरी सन् १८६३ ई. को प्रातः काल सूर्योदय से कुछ समय पूर्व विश्वविजयी पुत्र का जन्म हुआ। शिव का प्रसाद होने के कारण माता ने नाम रखा ‘वीरेश्वर’ । आत्मीयजन उन्हें संक्षिप्त रूप ‘बिले’ से सम्बोधित करते तथा अन्नप्राशन संस्कार के समय नाम रखा नरेन्द्र नाथ |


स्वामी विवेकानंद जी का मातृ प्रेम: 

माता की गोद में, उनकी सरस कोमल वाणी, रामायण-महाभारत की कहानियां सुनकर उनकी शिक्षा का शुभारम्भ हुआ। अपनी मां के प्रति नरेन्द्र के मन में इतना गहरा प्रेम था कि वे उन्हें घर और समाज दोनों स्थानों पर प्रतिष्ठित देखना चाहते थे। एक बार उन्होंने कहा, ‘मुझमें ज्ञान का जो विकास हुआ है उसके लिए मैं अपनी माता चिर ऋणी हूं।’
बाल्यावस्था से ही नरेन्द्रनाथ की जीवन दर्शन पवन वेगी, जितेन्द्रिय, सुन्दर, बुद्धिमान, वानर यूथपति, केसरीनन्दन, रामभक्त हनुमान थे। इन्हीं की पूजा वे भारत के घर-घर में प्रचलित करवाना चाहते थे। उनका कहना था कि देश सेवा करने वाले व्यक्ति को बल, वीर्य, साहस एवं पवित्रता से युक्त होना चाहिए।
भिखारियों, साधुओं की सहायता करने में इनकी विशेष रूचि थी। जब ये चार वर्ष के ही थे, तब एक ठिठुरने वाले भिखारी को मां का नया शॉल दे दिया। जब उन्हें कमरे में बंद कर दिया गया, तब खिड़की में से कपड़े देने लगे। प्रशासकीय क्षमता वाले नरेन्द्र को राजा की सभा का खेल बहुत अच्छा लगता था और वे सदैव राजा का ही गरिमापूर्ण अभिनय करते थे, तथा अन्य बालक मंत्री, सभासद, अधिकारी आदि का अभिनय करते। खेल समाप्ति के बाद वे सब में मिल जाते।
इन्हीं दिनों प्रति दिन शयन से पूर्व आँखें मूंदते ही नरेन्द्र को अपनी भौहों के बीच निरन्तर परिवर्तनशील रंगों का एक ज्योति बिन्दू दिखाई देता था जो वर्धित होते हुए गोलाकार बनकर फट जाता तभी एक शुभ्र ज्योतिपुज्ज से उनका सम्पूर्ण शरीर नहीं उठता और धीरे-धीरे वे निद्रामग्न हो जाते। 
गुरूवर श्री रामकृष्णदेव ने भी एक दिन कहा-‘ ‘नरेन ध्यानसिद्ध महापुरूष है।’

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बिले निर्भीक थे और सत्य जाने बिना विश्वास नहीं करते थे। पड़ोस के घर के आँगन में एक पेड़ था, जिस पर बिले अपने साथियों सहित चढ़ते, झूलते, लटकते। उस घर के वयोवृद्ध सज्जन ने दुःखी होकर 
कहा- ‘बच्चों। इस पेड़ पर ब्रह्मराक्षस रहता है, जो चढ़ने वाले की गर्दन मरोड़कर मार देगा।’ 
बूढ़े बाबा व्यर्थ ही डरा रहे हैं। मैं कई बार चढ़ा हूं, मुझे कुछ नहीं हुआ। प्रत्येक बात की जांच करके ही विश्वास करना चाहिए।’
बिले पूर्ण सत्यनिष्ठ थे तथा इसके लिए परिणाम की चिंता नहीं करते थे। एक बार भूगोल की कक्षा में बिले ने एक प्रश्न का सही उत्तर दिया। परन्तु अध्यापक ने कहा-‘ यह सही नहीं है।’ बिले ने पुनः दृढ़तापूर्वक कहा, उत्तर सही है।’ 
इस पर अध्यापक ने क्रोधित होकर एक चांटा लगा दिया। बिले बहुत उदास हो गया और घर जाकर अपनी मां को सारी बात सुनायी। मां भुवनेश्वरी ने समझाया, ‘बिले- शिक्षक की बात का बुरा मत मानो। जब तक तुम्हें ज्ञात है कि तुम सही हो, तुम्हें सदैव सत्य बोलना चाहिए, परिणाम की चिंता किये बिना।
उधर अध्यापक ने घर जाकर देखा और पाया कि बिले का उत्तर सही था। तब अध्यापक ने बिले से कहा, ‘मेरे बच्चे, मैंने जो कुछ कहा और किया उसके लिए मुझे खेद है। मैं गलत था।’
इसी प्रकार बिले की निर्भीकता, अनुपम प्रतिभा एवं सत्यवादिता का एक और उदाहरण है। एक बार अध्यापक के पढ़ाते समय बिले ने अपने पास बैठे बालक से बात की। अध्यापक ने उनको अनेक प्रश्न पूछे बिले ने खड़े होकर सभी प्रश्नों के सही उत्तर दे दिए। 
तब अध्यापक ने कहा,’ ओह, मुझसे भूल हो गई। यदि तुम बात कर रहे होते तो मेरे प्रश्नों के सही उत्तर नहीं दे सकते थे। कोई अन्य बालक बात कर रहा होगा।” बिले ने तुरन्त खड़े होकर विनम्रतापूर्वक कहा, ‘श्रीमन् यह बात सही नहीं है। मैंने आपके प्रश्नों के उत्तर दिए, यह ठीक है, परन्तु बात करने वाला लड़का भी मैं ही हूं।’ अध्यापक ने बिले के साहस, विनय एवं स्पष्टवादिता से प्रसन्न होकर पीठ थपथपायी।
बिले को इस असाधारण बौद्धिक क्षमता के कारण विद्यालयी पढ़ाई के लिए कोई अतिरिक्त समय नहीं देना पड़ता था। अतः बचे हुए समय में उन्होंने अन्य बालकों के साथ व्यायाम, अभिनय, कुश्ती लड़ना, तलवार चलाना, नाव खेना आदि अनेक कार्य सीखे तथा सिखाये। आपने एक नाटक कम्पनी तथा व्यायामशाला भी चलाई।
नरेन्द्र प्रत्युत्पन्नमति के धनी थे। एक बार वे अपने बाल साथियों के साथ झूले के लिए लोहे का खम्भा गाड़ना चाहते थे। जो इन सबसे उठ नहीं रहा था। यह देख एक अंग्रेज नाविक इनकी सहायता के लिए आया। इतने में ही खम्भा बच्चों के हाथ से छूटकर नाविक के सिर पर गिर गया, जिससे नाविक के सिर पर घाव हो गया और रक्त बहने लगा। 
यह देखकर कुछ लड़के दण्डित होने के भय से भाग गये, परन्तु नरेन्द्र ने अपनी धोती फाड़कर अंगरेज नाविक के सिर पर धैर्यपूर्वक पट्टी बांधी, पानी के छींटे दिये, कुछ साथियों के सहयोग से उसे उठाकर पास के विद्यालय भवन में लिटाया और हवा की। धीरे-धीरे नाविक की चेतना लौटी और वह अपने मार्ग पर चला गया।
नरेन्द्र ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर दूसरों की रक्षा करने की अद्भुत क्षमता थी। एक बार एक छोटा लड़का तीव्र वेग से आने वाली घोड़ा गाड़ी की चपेट में आने वाला ही था कि नरेन्द्र उछल कर बालक के पास पहुंचे और उसे खींचकर बचा लिया। 
एक बार कलकत्ता में ‘सिरासिप’ नामक युद्धपोत बन्दरगाह में आया, जिसे देखने बहुत लोग जा रहे थे। नरेन्द्र भी अपने मित्रों के साथ गए परन्तु वहां ज्ञात हुआ कि किसी कार्यालय जाकर उच्चाधिकारी की अनुमति लानी आवश्यक है। नरेन्द्र के कार्यालय पहुंचने पर अल्प आयु ११ वर्ष का होने के कारण अन्दर नहीं जाने दिया। 
संकल्प की दृढ़ता के कारण नरेन्द्र ने उपाय खोजा। देखा ऊपरी कमरे के आगे कतार लगी है, वहीं उच्चाधिकारी बैठते होंगे। फिर भवन का चक्कर लगाकर देखा, पीछे की ओर लोहे की संकरी सीढ़ी थी। नरेन्द्र उस सीढ़ी से ऊपर पहुंचकर प्रार्थना पत्र लेकर पंक्ति में लग गए। 
बारी आने पर साहब ने अनुमति हस्ताक्षर कर दिये। लौटते समय द्वार पर खड़े सिपाही को अनुमति दिखाकर चिढ़ाया। उसने आश्चर्य से पूछा-‘तू ऊपर कैसे गया?” ‘हमें जादू आता है।’ तत्पश्चात् मित्रों सहित सानन्द युद्धपोत देखा। यह घटना नरेन्द्र की दृढ़ संकल्प-शक्ति और नेतृत्व के गुण की परिचायक है।
बचपन से ही नरेन्द्र छुआछत एवं जातिभेद के विरोधी थे। उनके पिताजी विश्वनाथ बाबू के पास अलग-अलग जाति एवं सम्प्रदाय के मुवक्किल आते थे। अतः उस समय के रीति-रिवाज के अनुसार बैठक में एक ओर विभिन्न जाति वालों के लिए अलग-अलग हुक्के रखे हुए थे। 
एक दिन बालक नरेन्द्र सोचने लगे कोई किसी दूसरी जाति धर्म वाले के हाथ का खा-पी लेगा तो क्या होगा ? 
क्या उसके सिर पर छत टूट पड़ेगी? 
क्या वह मर जायेगा? 
ऐसा सोचते सोचते वे बैठक में आये तथा वहां किसी को न देखकर वह साहसपूर्वक एक-एक करके सारे हुक्कों को अपने होठों से लगाने लगे, परन्तु उससे कोई परिवर्तन तो हुआ नहीं, जैसे पहले थे वैसे ही अब भी हैं। 
उसी समय विश्वनाथ बाबू आये और पूछा-‘यह क्या कर रहे हो बिले?’ 
नरेन्द्र ने तुरन्त उत्तर दिया, ‘मैं इस बात की परीक्षा कर रहा था कि अगर जातिभेद न मानूं, तो मेरा क्या होगा ?’ उन्होंने वात्सल्यपूर्ण दृष्टि से पुत्र की ओर देखा और चले गये।
पुत्र की विकासोन्मुख बुद्धि एवं प्रतिभा को भली भांति जानने के कारण पिता विश्वनाथ बाबू अनेकानेक विषयों पर नरेन्द्र से तर्क करते, उन्हें उन्मुक्तभाव से अपना मत प्रकट करने का अवसर देते। 
पिता-पुत्र दोनों ही एक-दूसरे के तर्क, चिन्तन एवं अभिव्यक्ति पर मुग्ध थे। एक दिन बंग साहित्य के प्रसिद्ध लेखक एवं विश्वनाथ बाबू के मित्र-साहित्य चर्चा कर रहे थे। पिता ने नरेन्द्रनाथ को भी वहां बुला लिया। अल्पकाल में ही यह ज्ञात हो गया कि इस बालक ने अधिकांश प्रसिद्ध लेखकों ने ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया। 
उन साहित्यकार ने विस्मय और आनन्दपूर्वक कहा, “बेटा, आशा है, एक दिन तुम्हारे द्वारा बंग भाषा गौरवान्वित होगी।” स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित ‘वर्तमान भारत’, ‘परिव्राजक’, ‘भावषार कथा’, (चिन्तनीय बातें), ‘प्राच्य और पाश्चात्य’ आदि ग्रन्थों ने उनकी भविष्यवाणी सत्य सिद्ध कर दी।


स्वामी विवेकानंद के अनमोल विचार, भाषण | जो भर देंगे आप में ऊर्जा

अन्ततः उस महायोगी, महामानव, विश्व को झकझोरने वाले, भारत मां के लाडले के महाभिनिष्क्रमण का दिन, पच्चाग देखकर निश्चित किया हुआ दिन, शुक्रवार, ४ जुलाई, १६०२ आ पहुंचा। उस दिन स्वामीजी ब्रहममुहुर्त में उठकर, वर्षो वाद स्वयं को स्वस्थ एवं सबल अनुभव कर रहे थे। 
उन्होंने काली पूजा की इच्छा व्यक्त की और ठाकुर घर में प्रविष्ट हो सभी द्वार एवं खिड़कियों बन्द कर ली, जैसा पहले कभी नहीं हुआ। तीन घण्टों तक ध्यानव्यस्थित रहने के पश्चात स्वामीजी आनन्दमग्न भाव से मां काली की वन्दना करते हुए सीढ़ियों से उतरे। 
तत्पश्चात ‘ मन चल निज निकेतन’ भजन गुनगुनाते हुए मठ के प्रांगण में टहलने लगे। यह वही भजन था, जिसे गुरू शिष्य के प्रथम साक्षात्कार के दिन बालक नरेन्द्र नाथ ने आनन्द मग्न होकर प्रस्तुत किया था और श्री रामकृष्णदेव के भाविहृलतापूर्वक नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित हो गई थी। 
आज जगत के कल्याण-व्रत में पूर्ण आत्मदान करने वाले सिद्ध संकल्प महायोगी का असीम प्रशान्त कण्ठ स्वर था। स्वामी प्रेमानन्द उनके निकट खड़े थे। 
उन्होंने सुना, स्वामीजी स्वकथन कर रहे हैं- यदि इस समय कोई दूसरा विवेकानन्द होता तो वह समझ सकता, विवेकानन्द ने क्या किया है। परन्तु कालान्तर में ऐसे अनेक विवेकानन्द जन्म ग्रहण करेंगे।’ स्वामी प्रेमानन्द यह सुनकर चौंके, परन्तु उनके संकल्प का अनुमान नहीं लगा सके।
अस्वस्थ्य रहने के कारण स्वामीजी मध्याहन भोजन अपने कक्ष में ही करते थे, परन्तु उस दिन अप्रत्याशित रूप से स्वामीजी सबके साथ भोजन कर आनन्दित हुए। भोजन के समय स्वामीजी सबके साथ हास्य विनोद करते रहे। 
थोड़ी देर विश्राम कर स्वामीजी ने निरन्तर तीन घण्टों ब्रहृमाचारियों को संस्कृत व्याकरण पढ़ायी। छोटी-छोटी कहानियों एवं आकर्षक व्याख्या के कारण नीरस विषय भी सबको रूचिकर लगा। स्वामीजी ने बताया कि इसी प्रकार कहानी, उपमा तथा हँसी के साथ एक दिन उन्होंने अपने सहपाठी मित्र दाशरथी सान्याल (वकील) को एक रात्रि में ही इंग्लैण्ड का सारा इतिहास सिखा दिया था।
तीसरे प्रहर में स्वामीजी प्रेमानन्द को साथ लेकर मठ से बाहर घूमने गये। मार्ग में वैदिक महाविद्यालय की अध्ययन करने से क्या सामय स्वामी प्रेमानन्द ने पूछा-‘वेदों का ‘इससे अन्धविश्वासों, कुसंस्कारों का विनाश होगा।’ भ्रमण के पश्चात स्वामीजी मठ में संन्यासियों तथा ब्रह्मचारियों के साथ वार्तालाप, उपदेश एवं स्नेह सम्भाषण करने लगे। 
सायंकाल सात बजे आरती की घण्टी बजी। ब्रह्मचारियों प्रणाम कर ठाकुर घर की ओर चले तथा आचार्य प्रवर दूसरे तल पर अपने कक्ष में एक घण्टे तक जप और ध्यान करते रहे। तत्पश्चात् शिष्य से सभी खिड़कियाँ खुलवायी और आत्ममग्न स्वामी विवेकानन्द धीरे-धीरे गवाक्ष के निकट आकर दक्षिणेश्वर की ओर दृष्टिपात कर चिन्तन में लीन हो गए। 
कुछ समय पश्चात स्वामीजी बिस्तर पर लेट गए तथा ब्रह्मचारी को पंखा झलने का निर्देश दिया। उस समय रात्रि के नौ बजे थे। कुछ समय पश्चात् उनके हाथों में कम्पन्न हुआ, दो दीर्घ निःश्वास लिये और उनका मस्तक थोड़ा हिल गया, नेत्र भूमध्य में केन्द्रित हो गए, मुख पर दिव्य भाव व्यक्त होने लगा, 
भारत के योद्धा सन्यासी, विश्व में धर्मक्रांति का सूत्रपात करने वाले योगिप्रवर, नौ बजकर दस मिनट पर महासमाधि में लीन हो गए। मात्र ३६ वर्ष, ५ माह, २४ दिन की आयु में देह त्यागकर उन्होंने अपनी भविष्यवाणी को सत्य सिद्ध कर दिया-‘मैं चालीसवां वर्ष पूर्ण नहीं करूंगा।’


इस महावजपात का समाचार सुन उनके समस्त गुरूभाई, माता भुवनेश्वरी देवी, भगिनी निवेदिता तथा सभी शिष्य बेलूड़ मठ की ओर दौड़े। मानसपुत्री निवेदिता दूसरे दिन अपराहन दो बजे तक पंखा झलती रही। शनिवार, ५ जुलाई, १६०२ ई. को स्वामीजी के इच्छानुसार बिल्ववृक्ष तले देह को चन्दन काष्ठाग्नि को समर्पित किया।
बंगाल के दक्षिणेश्वर में गंगाजी के पूर्वी तट पर एक दिन उत्पन्न एक तरंग, बेलूर में गंगाजी के पश्चिम तट पर एक दिन विलीन हो गई। उसी स्थान पर स्वामीजी की प्रतिमा तथा मंदिर का निर्माण हुआ, जो सदैव प्रेरणा का प्रतीक बना रहेगा।
कन्याकुमारी की पुनीत शिला पर ध्यानोपरान्त, स्वामी के हृदय में आलोकित तीन प्रश्नों के जो उत्तर प्राप्त हुए थे, उन्हें स्वामीजी ने ३६ वर्ष की अल्पायु में पूर्ण किये तथा युगों-युगों के लिए अपना सन्देश प्रसारित किया |


प्रथम-‘माँ का सौंपा गया कार्य- 

मनुष्य के अंदर निहित शक्ति एवं विश्वास को रना’ इसी के लिए उन्होंने महामंत्र देया ‘उत्तिष्ठत! जाग्रत !! प्राप्य वरान्निबोधत!!! अर्थात ‘उठो, जागो और तब तक रूको नहीं, जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।’ यही महामंत्र उन्होंने जन-जन में फूंका।


द्वितीय-

भारत का उत्थान कर उसके खोये हुए गौरवमय अतीत को पुनः लौटाने के लिए स्वामीजी ने ‘त्याग और सेवा के भाव को भारत के जन-जन में राष्ट्रीय आदर्श के रूप में स्थापित कर, राष्ट्र पुनरूत्थान हेतु कार्यों में जुट जाने की प्रेरणा दी। 
पाश्चात्य देशों के भ्रमणोपरान्त मद्रास में देशवासियों को उद्बोधित करते हुए स्वामीजी ने आवाह्न किया- ‘आगामी पचास वर्षों के लिए हमारा राष्ट्र ही हमारा एक मात्र जाग्रत देवता है तथा सबसे पहले पूज्य हैं हमारे देशवासी।” 
इस आवाह्न के बीज से अंकुर रूप में प्रस्फुटित हुए बंगाल के क्रांतिकारी, आजाद हिन्द फौज के अधिष्ठाता सुभाषचन्द्र बोस, लोकमान्य तिलक, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, महात्मा गांधी एवं देश के अगणित योद्धा, जिनके समवेत प्रयासों से स्वतंत्र भारत का वृक्ष लहलहा उठा।


तृतीय- 

‘माँ भारती को जगद्गुरू ने सिंहासन पर आरूढ़ हो, विश्व का मार्गदर्शन योग्य पुनः बनाने की दिशा में स्वामीजी ने शिकागो में आयोजित ‘धर्म संसद’ को सम्बोधित कर, भारत वर्ष के विषय में विश्व की धारणाओं को परिवर्तित किया, संसार भर में वेदान्त का डंका बजा दिया तथा भविष्य में भारतीय आध्यात्मिक विद्धानों के लिए पाश्चात्य जगत के द्वार खोल दिये।


शताब्दियों तक लोग स्वामी विवेकानन्द के इस सन्देश से प्रेरणा लेते रहेंगे-“हे मानव! पहले तुम यह अनुभूति कर लो कि मैं ब्रह्मा से अभिन्न हूं-‘अहं ब्राह्मस्मि और उसके पश्चात यह कि पूरा ब्राह्माण्ड ब्राह्मा ही है- ‘सर्व खल्विदं ब्रह्मा ।’

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